हाथ से फिसलते रिश्तें…

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इक्कीसवी सदी में बढ़ते कदम हमारे लिये गौरव की बात है, हम अपनी सफलता की ,क लंबी फेहरिश्त तैयार कर सकते है, ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, शिक्षा-दीक्षा,प्रौयोगिकी तकनीकि जीवन के हर क्षेत्र में हमने तरक्की की है। बहुत कुछ पाया है लेकिन शांत चित्त से यदि सोचे अपने अंर्तमन को टटोलने का प्रयास करें तो हम सभी ,क ही नतीजे पर पहुंचते है कि इस सारी चकाचैंध पर दुनिया में ,क बहुत ही अहम चीज हम सबके हाथों से फिसलती जा रही है और वो है रिश्ते। और मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि बहुत पीड़ा भी होती है इस बात से बुद्धिजीवी कहलाने वाले हम इंसान हर क्षेत्र में अपने ज्ञान का लोहा मनवाने वाले हम इंसान चंद रिश्तों को आखिर क्यूॅ सहेज कर नहीं रख पा रहें है ?
पहले के दिन याद करिये खेतों मेें जी तोड़ मेहनत करके ईमानदारी की कमाई से दो वक्त की रोटी जुटकार अपने परिवार के साथ पेट भर भोजन करके हम चैन की नींद सोते थे, क्या तब हम सुखी नही थे, बहुत सुखी थे, क्योंकि तब हमारे साथ हमारे सुख-दुख बाॅटने वाले परिजन होते थे, अब तो इंसान का दायरा सिमटता सा जा रहा है। संयुक्त परिवारों की जगह ,कल परिवारों ने ले ली है। हम दो हमारे दो का आंकड़ा भी हमारा ,क पर आ रहा है। जिंदगी जीने के तरीके में बहुत बदलाब आ गये है, रहन-सहन का स्तर बढ़ा है और इन सबके साथ बदली है सोच जो हर किसी को अकेला बनाती जा रही है। अधिक पैसा कमाने की लालसा, आधुनिक कहलाने का शौक, सोशल मीडिया पर चर्चाओं में रहने की धुन और समय का अभाव ये कुछ कारण है तो रिश्तों के बिखराव में बहुत कुछ भूमिका निभाते है।
आपने शायद ही किसी को कहते सुना हो कि हमने उनके साथ गलत कर दिया बल्कि यही सुना होगा कि उनने हमारे साथ ठीक नही किया, ये दोषारोपण कहाॅॅ ले जा रहा है हमें? हर व्यक्ति खुद को हमेशा सही और अगले को गलत ही समझता रहेगा तो क्या हाल होगा, इस समाज का, हमारे रिश्तों का, ये विचारणीय बात है। माता-पिता, भाई-बहिन, पति-पत्नी या कोइ और रिश्ता हो हर दूसरे व्यक्ति की समस्या बन चुका है, इन्हें संभाल पाना सबसे तालमेल बिठा पाना क्योंकि आपसी प्रेम, सामंजस्य और विश्वास में फर्क तो आया है और इनकी जगह कही न कहीं अंहकार ने प्रवेश किया है।
झूठे अहंकार के कारण रिश्तों में कड़वाहट घुलने लगी है यही वजह है कि धन-दौलत, सब कुछ होते हुये भी इंसान असंतुष्ट है, अशांत है, क्योंकि शांति और संतुष्टि तो प्रेम और स्नेह के साथी है।
इस आपाधापी के दौर में समय का अभाव तो वास्तव में होता है, लेकिन समय को चुराना होगा, यदि रिश्तों को बचाना है तो उन्हें समय तो देना होगा। आत्मा की आवाज सुनकर आत्मीय रूप से सहेजना हेागा रिश्तों को क्योंकि बाहरी आवरण तो मायाजाल होता है सहजता तो आत्मा से रिश्ते निभाने में होती है। 
मनुष्य ,क सामाजिक प्राणी है और उसे हर किसी के हर समय आवश्यकता होती है, इसलिये इस भ्रम से उसे बाहर आना ही होगा और सहनशीलता, प्रेम, त्याग क्षमा करने का गुण इन सबको अपनाकर हर इंसान को रिश्तों की अहमियत समझते हुये उन्हें संवारने की दिशा में प्रयास करने होंगे, तभा तो हम इसंानियत का पाठ दूसरों को पढ़ा सकेंगें।


श्रीमति प्रीति मनीष दुबे , सुभाष वार्ड मंडला

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