आदिवासियों के हर काम की शुरुआत परम्पराओं से जुड़ी होती है. ऐसी ही एक प्रथा है ‘बिदरी’, जिससे खेती, किसानी और बोवनी की शुरुआत होती है. बिना बिदरी के मंडला के आदिवासी गांवों का कोई भी किसान अनाज का एक भी दाना अपने खेतों में नहीं डालता, लेकिन कोरोना के चलते कहीं न कहीं इस परंपरा या प्रथा पर भी असर पड़ा है और किसान बिना बिदरी के ही खेती की शुरूआत कर रहे हैं. ऐसे में उनके मन में खेती-किसानी को लेकर डर भी है.
सही समय पर बारिश हो, सही समय पर मौसम भी खुले, अतिवृष्टि न हो और न ही कम बरसात के चलते फसलों को नुकसान पहुंचे, इसी प्रार्थना के लिए गांव के सभी किसान खेरमाता या अपने देव स्थान पर जुटते हैं और इस पूजा के बाद ही खेती की शुरुआत होती है.
क्या है ‘बिदरी’ –
गांव के सभी किसान अपने घर से थोड़ा-थोड़ा अनाज, बांस की टोकरी में लेकर आते हैं, फिर इन्हें इकट्ठा किया जाता है, पुजारी या पंडा इस अनाज के साथ ग्राम और अन्य देवी-देवताओं की पूजा करता है, बलि दी जाती है और पूरे गांव का भोजन यहीं बनता है. इसके बाद इसी स्थान के पास छोटा सा खेत बनाकर दाने की बुवाई की जाती है और फिर इकट्ठा किया हुआ अनाज सभी किसानों को बांट दिया जाता है, जिसे ‘बिजाहि’ कहते हैं. ये अनाज किसान अपने बीज के अनाज में मिलाते हैं, फिर बुआई की शुरुआत होती है.
महिलाओं को नहीं देखने की इजाजत’ –
बिदरी’ की पूजा महिलाएं नहीं देख सकती हैं, इस दिन ये घर पर रहती हैं या फिर सामूहिक रूप से इनका अलग भोजन बनता है, महिलाएं इस दौरान लोक संगीत या फिर कोई दूसरे आयोजन कर देवी-देवताओं को मनाती हैं.
कोरोना काल में प्रभावित हुयी बिदरी –
मानसून ने दस्तक दे दी है और यही फसलों की बुआई का सही समय है, लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग का पालन और एक जगह भीड़ इकट्ठा न करने के नियमों के चलते ग्रामीण किसान बिदरी का आयोजन बहुत छोटे रूप में कर रहे हैं और सारे किसान पूजा के लिए इकट्ठे नहीं हो पा रहे. ऐसे में कहीं न कहीं उनके मन में फसलों की बुआई और उसके पकने को लेकर कहीं न कहीं संशय है कि उनके आराध्य नाराज न हो जाएं.
आदिवासियों की परंपराएं जितनी पुरानी हैं, उतनी ही अनूठी भी, लेकिन ये सामाजिक एकता और सहयोग के साथ इस बात का भी संदेश देती हैं कि गम हो या खुशी, सभी एक दूसरे के साथ होते हैं. लेकिन कोरोना ने इस बार जहां आदिवासियों की संस्कृति और परम्पराओं पर जिस तरह से प्रभाव डाला है, यह पहली बार हो रहा है.