लोकतंत्र पर भीड़तंत्र भारी

आज के समय में एक अजीबो-गरीब मामला सामने आने लगा है। हिंसा का एक नया रूप देखने को मिल रहा है। जिस तरीके से भीड़ किसी मामले को बिना संज्ञान में लिए किसी को मौत के घाट उतार देती है। यह सर्वथा अनुचित है। इससे लोकतंत्र पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। क्योंकि भारत में ऐसे मामलों के लिए जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की व्यवस्था है। बड़ी बात तो है कि भीड़ तंत्र में शामिल आरोपियों को सजा किस प्रकार दी जाए, क्योंकि इसमें निर्दोष लोग शिकार हो रहें हैं। मॉब लिंचिग और गौरक्षकों द्वारा हिंसा के कई मामले पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर और गाजीपुर में सामने आये हैं। जिसमें भीड़ ने दो पुलिस कर्मियों को दौड़ा- दौड़ाकर मार डाली। इतना कुछ होने के बावजूद भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने ट्विटर अकाउंट पर कहा कि मेरे दो साल के शासन में एक भी हिंसाएं नहीं हुई।
ये घटनांए एक ही राज्य में नहीं बल्कि पूरे देश में फैल गई है। इस लोकतंत्र में भीड़तत्र खुद को कानून समझने लगी है। कृत्यों को उचित बताकर अपने आप को बचा लेती है। जब कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ”कोई भी नागरिक अपने आप में क़ानून नहीं बन सकता है. लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इजाज़त नहीं दी जा सकती. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को सख्त आदेश दिया कि वो संविधान के मुताबिक काम करें।” भय और अराजकता के मामले में राज्य को सकारात्मक कार्य करना पड़ता है. हिंसा की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अदालत ने कहा, लोकतंत्र के भयानक कृत्यों को एक नया मानदंड बनने की अनुमति नहीं दी जा सकती है और इसे सख्ती से दबाया जाना चाहिए लेकिन राज्य सरकारें भी मामले को गंभीरतापूर्ण नहीं ले रहीं हैं। बस राज्य सरकारें इस पर अपनी राजनीति की रोटियां सेंक रहीं हैं।
खास बात तो यह है कि सरकार से लेकर समाज तक के लोग गाय पर राजनीति करते हुए नजर आते हैं। उन गायों पर राजनीति करने वालों को तब ये नहीं समझ आता है, जब गायें सड़कों पर बड़ी संख्या में घूमती हुई नजर आती हैं और यही बड़े वाहनों की चपेट में आकर मर जाती हैं। तब गौरक्षकों कहां चले जाते हैं? कैसी विडंबना है जहां पशुओं की अपेक्षा मनुष्यों के जीवन को कमतर आंका जाता है। लेकिन ये कैसा समाज है जहां पशुओं का उपयोग खत्म होते ही उसे छोड़ देते हैं। ऐसे में उन गौरक्षकों का कर्तव्य बनता है कि उनके लिए गौशालाओं का निर्माण करा कर उनकी सेवा की जाए। भीड़तंत्र किसी की हत्या करने से अच्छा यह होगा कि समाज के लोगों को जागरुक करें। इसमें देश और समाज दोनों की भलाई है। मॉब लिंचिंग का सिलसिला इतना बढ़ता जा रहा है कि सोशल मीडिया द्वारा फैलाए गए अफवाह के आधार पर भी भीड़तंत्र अपना शिकार बना लेती है। अक्सर यह देखा जाता रहा है कि ये घटनाएं सोशल मीडिया में बच्चा चोरी और गौकसी की अफवाहों से ज्यादा घटित होने लगी। शक के आधार पर भीड़ बेरहमी से पीट- पीट कर मार देती है। यह कहां का न्याय है?
हम इसे सीधे तौर पर कह सकते हैं कि लोकतंत्र एवं न्यायतंत्र का हनन हो रहा है और सरकारें भी अपनी वोट बैंक की राजनीति करने के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं। बता दें कि इस तरह की हिंसा की शुरुआत साल 2015 में ग्रेटर नोएडा से लगे दादरी इलाक़े में बीफ़ खाने के संदेह में एक बड़ी और उत्तेजित भीड़ ने अख़लाक़ अहमद की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी। उसके बाद से यह प्रचलन में आ गया, आए दिन ऐसी घटनांए होने लगीं। पिछले साल 2017 में झारखंड के रामगढ़ शहर के अलीमुद्दीन अंसारी नाम के व्यक्ति की जिन्हें एक भीड़ ने सरेआम पीट- पीट कर हत्या कर दी थी। इस मामले को कोर्ट ने संज्ञा में लेते हुए 11 व्यक्तियों को दोषी मानकर उम्रकैद की सजा सुनाई थी।
विडंबना यह है कि इस मामले में स्थानीय नेता भी शामिल थे लेकिन जब मामला रांची हाईकोर्ट पंहुचा तो कोर्ट ने इन लोगों की सजा पर स्टे लगाकर जमानत देकर रिहा कर दिया। मामला तो तब गरमा गया जब इतनी शर्मनाक कृत्य के बाद भाजपा के नेता ने माला पहनाकर स्वागत किया गया। मतलब की भीड़तंत्र की बर्बरता की हद हो गई। चिंता का विषय तो यह है कि समाज के युवा भी इस पथ पर अग्रसर हो रहें हैं। गंभीरता से लेते हुए सरकार को इस पर सशक्त कानून बनाना चाहिए, ताकि आरोपियों को कड़ी से कड़ी से सजा मिल सके। आखिरकार कब तक धर्म के नाम राजनीति चलेगी। मंदिर-मंजिद, जाति-धर्म, सम्प्रदाय, हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर राजनीति करने वालों ने तो इस पूरे देश के टुकड़े- टुकड़े करने पर तुले हैं। सियासत के नाम पर लोगों को आपस में लड़वा रहें हैं, क्या आज समाज में इतनी भी चेतना नहीं कि टूटते भारत को इन राजनीतिज्ञों से बचा सकें। यह बहुत ही चिंता का विषय है। इस पर देशवासियों को सोचने की सख्त जरुरत है।

राजकुमार – स्वतंत्र लेखक, विचारक

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