होली की कुंडलिया

होली का उल्लास है,मन ले रहा उड़ान
हर पल को तो मिल गई,इक नेहिल पहचान 
इक नेहिल पहचान,खिली है मन की बगिया
गाते रंग-गुलाल,हो गई है नव दुनिया
होकर सब रंगीन,कर रहे हँसी-ठिठोली
बुड्ढे बने जवान,अनोखी सचमुच होली।

होली का यह पर्व जो,करता बहुत कमाल
सभी ओर बिखरी यहाँ,भावों भरी गुलाल
भावों भरी गुलाल,बन गये नैन कटारी
घायल हुए जवान,मुहब्बत है बीमारी
कुछ करते उत्पात,किसी की मीठी बोली
रौनक का संसार,सुहानी लगती होली।

होली बृज में हो रही,भीगे राधा-श्याम
अपनेपन का बन गया,अंतर पावन धाम
अंतर पावन धाम,रँगी है सारी काया
भीतर का अनुराग,प्रणय की है यह माया
बरसाने की बात,वहाँ मस्तों की टोली
धींगामुश्ती ख़ूब,आज इतराती होली।

होली का त्योहार तो,परे करे अवसाद
सूने दिल को जो करे,इक पल में आबाद
इक पल में आबाद,दिलों को नाच नचाए
हो मादक हर बात,बहुत ही धूम मचाए
हुरियारों का जोश,छोड़ दो तुम अब खोली
बाहर रक्खो पैर,बुलाती तुमको होली।

होली की महिमा बहुत,गाते रंग-अबीर
फागुन में आती सदा,हरने सबकी पीर
हरने सबकी पीर,गली,सड़कों पर मस्ती
मिलें साल भर बाद,बहुत रंगों की हस्ती
करो ख़ूब हुड़दंग,खोजकर निज हमजोली
है नेहिल अहसास,नाम जिसका है होली।

प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
प्राध्यापक इतिहास/प्राचार्य
शासकीय जेएमसी महिला महाविद्यालय
मंडला(मप्र)-481661

प्रमाणित किया जाता है कि प्रस्तुत रचना व अप्रकाशित है -प्रो शरद नारायण खरे

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