हाट बाजार और गुड़ की जलेबी

जलेबी हम भारतीयों के रग रग में ऐसे बसी है जैसे खुद जलेबी की रगों में चाशनी। गुजरात मे फाफड़े के साथ खाई जाए, इंदौर में पोहे जलेबी, राजस्थान में बासुंदी संग या फिर हमारे खँडवे वाले किशोर दा की तरह दूध जलेबी, ये हर रूप में बेमिसाल है। लॉकडाउन में लोगो को पानीपूरी के बाद सबसे ज्यादा याद जलेबी की ही आई। हजारों डिजाइन की जलेबियां इस दौरान बना डालीं जनता ने। आखिर खमीरी मैदे से बने चाशनी में तैरते ये कुरकुरे चक्रम सबके फेवरेट जो ठहरे।

जलेबी मध्य पूर्व और अरब से लेकर उत्तर भारत होते हुए ठेठ दक्षिण तक खाई जाती है। इसकी उत्पत्ति कहाँ हुई इस पचड़े में हम नही पड़ेंगे, क्योंकि ये सवाल भी जलेबी की तरह ही चक्करदार है। पर हर इलाके की छाप जरूर जलेबी पर मिलती है। जैसे बारीक और क्रिस्प सिंधी जलेबी, राजस्थानी केसरिया जलेबी और इंदौर का विशाल रबड़ी जलेबा जो पाव भर का एक होता है। वैसे मावे की जलेबी भी गज़ब होती है, जिसका मूल जबलपुर है, पर उस बारे में फिर कभी बतियाएंगे। आज हम बात करेंगे एक देशज स्वाद की जिसका भदेस पन ही उसकी खासियत है। मैं बात कर रहा हूं हमारे गांवों, कस्बों के हाट बाजारों की रौनक गुड़ की जलेबी की।

कुछ साल पहले जब मैं नवोदय विद्यालयों को आई टी सेवा प्रदान करता था, तब अक्सर आसपास के ग्रामीण अंचलों में जाना होता था। एक बार पंधाना जाना हुआ। वापसी में देखा कि हाट बाजार लगा है। ग्रामीण गृहस्थी की जरूरत का हर सामान हाट बाजार में मिलता है। स्त्रियों के श्रृंगार, बच्चों के कपड़ों के अलावा बर्तन, मसाले और सागभाजी भी मिल जाएगी आपको यहां। खाने की विभिन्न देसी वस्तुओं जैसे मोटी सेंव, नमकीन दाने, भुने चने, कचोरी, मोटी बूंदी के लड्डू, गुड़ की सेंव आदि के साथ मिल रही थी गर्मागर्म जलेबियाँ, लेकिन जलेबियाँ 2 रंग की थी। एक सामान्य और दूसरी गहरे रंग की। मुझे उत्सुकता हुई पूछने पर पता चला गुड़ की जलेबी है।

दोनो जलेबी बन एक ही साथ रहीं थीं, पर चाशनी अलग थीं। शक्कर की चाशनी के अलावा दूसरी कढ़ाई में गुड़ की राब थी जो इंजन आयल जैसी लग रही थी। उसमे डालने पर गहरे रंग की जलेबियाँ बाहर आ रही थीं। मैंने दुकानदार से कहा थोड़ी सी देने को, उसने 10 रु की 3 जलेबी दे दीं। पर वो अचंभित सा था उसके अनुसार शक्कर की बेहतर होती है, मुझे वो खानी चाहिए। मैंने समझाया कि भई ये तो खाते रहते हैं, आप गुड़ की खिलाओ। वो जलेबी देने के बाद कौतुक से मेरी ओर देखने लगा उसे लगा एक चख बाकी वापस कर दूंगा।

गुड़ की जलेबी अपेक्षाकृत भारी थी, चखते ही ऐसा लगा जैसे कुछ बहुत ही जमीनी, बहुत देसी चख लिया हो, जैसे एक सौंधापन घुल गया हो तबियत में। उस जलेबी का अनगढ़पन ही उसकी खासियत थी। एक गाढ़ी मिठास से सराबोर थी वो जलेबी। गर्म गुड़ यूं भी अपनी एक खास मादक महक लिए होता है। जिन्होंने गुड़ बनते देखा और चखा है, वो जानते हैं कि, वो महक आपको सीधे प्रकृति से जोड़ती है। गुड़ से शक्कर बनाते हुए हम उसकी मिठास तो ले लेते हैं पर आत्मा को मार देते हैं। वही खोए हुए तत्व आपको गुड़ की जलेबी में मिलेंगे।

बहरहाल मैंने उसे एक किलो बांधने को कहा। आश्चर्य मिश्रित खुशी से उसने तत्परता दिखाते हुए ताजी जलेबिया बनाई और पत्तो में लपेट, अखबार में गर्मागर्म बांध कर दीं। घर आकर सबको खिलाईं, पापा मम्मी तो पहले भी खा चुके थे, बाकी सब ने थोड़ी आनाकानी के बाद पूरी जलेबियाँ साफ कर दीं। हमारे हाथ और कपड़े भले ही चिपचिपे हो गए, पर मन प्रसन्न हो गया। जो संतोष ऑर्गेनिक खाना खा कर या कोई अच्छा काम कर के मिलता है, वही महसूस हुआ। आपको भी जब अवसर मिले गांवों में जाइये, और गुड़ की जलेबियाँ आजमाइए। मुझे यकीन है आपको मेरी ये बात याद जरूर आएगी

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