बाबा,बुआ-बबुआ,दीदी-पप्पू का “खेला हो गया”, खूब जेल-जेल खेल लिया,मंदिर-मंदिर में ढोक लगा ली,छापे-छापे भी खूब हुये । उन सभी स्वायत्त संस्थाओं पर भी जो हमें गर्वान्वित करती आई हैं ,भरपूर दोषारोपण हुआ ! आखिर हो भी क्यों ना ? क्या ये सभी संस्थायें चुनाव काल ( मौसम ) के अतिरिक्त अपने दफ्तर को बंद कर “चादर ओढ़कर”सोती है ? क्यों नहीं उनकी नजरें इनायत होती हैं उन लोगों की “अकूत संपत्ति” पर जो अवैध रूप से संचित एवम संग्रहित की गई है। यद्यपि इस उपक्रम ने एक “तिलस्मी साम्राज्य” को खोज निकालना साधुवाद योग्य है ।
सौगातों की भारी-भरकम घोषणाएं भी खूब हो चुकी ,चहुँ ओर से । संपूर्ण चुनाव में धर्म युद्ध,जाति,समुदाय, संस्कृति हेतु खूब गाल बजाये गये, दांत भी असीमित किटकिटाये । महिलाओं को चुनाव लड़ाने की यथायोग्य व्यवस्था व समुचित स्थान की सुखद परंपरा का उदय भी हुआ किंतु विकास की चर्चा लापता सी रही । योग्य-अयोग्य सभी ने जमकर एक दूसरे को अशोभनीय उलाहने दिये,अपने-अपनों को उपयोगी-अनुपयोगी प्रमाणित करने के प्रयास भी किये गए, गगनचुंबी जुमलेबाजियाँ भी अथक हुईं ….अपने आकाओं को प्रसन्न करने हेतु एक से बढ़कर एक कसीदे पढ़े गये । टोपी,वस्त्र,अन्न जल पर भी खूब भाषण बाजी हुई । नेहरू जी तो हर चुनाव का प्रमुख अंग हुआ ही करते हैं किन्तु इस बार जिन्ना-गन्ना ने भी खूब रंग जमाया । अपराधियों ,दबंगाइयों , दंगाईयों, बाहुबलियों को भी जमकर प्रोत्साहन मिला । जेल में रहकर व जेल से बाहर आकर भी उन्होंने चुनाव लड़ा। अत्यन्त दुःखद यह रहा कि लोकतंत्र के सर्वोच्च प्रहरी व वर्तमान में विश्व के सबसे कद्दावर, हमारे राष्ट्र के मुखिया की सुरक्षा में साशय त्रुटि की गई दूसरी ओर सुखद यह भी रहा कि इस चुनाव में “चुनाव आयोग” ने बुद्धिमत्ता व साहस का प्रदर्शन किया उसने अपने ऊपर लगे “दंतहीन,नखहीन बाघ ” के विशेषण से स्वतः को पृथक करने में अपूर्व सफलता अर्जित की व तथाकथित राजनीतिक पिछलग्गु पन का लबादा उतार फेंका। अपने मजबूत हाथ आजमाकर चुनाव आयोग ने यह प्रमाणित कर दिया कि इस अधिकरण की भूमिका कठोर,निष्पक्ष,न्यायप्रिय तो होती है साथ ही उनका मुखिया “मुख्य चुनाव आयुक्त” देश के प्रथम नागरिक व भारत के मुख्य न्यायाधीश के समकक्ष यूँ ही नहीं निर्धारित है ।
देश की सबसे पुरानी पार्टी की महामंत्री की उत्साही भूमिका व उनकी पार्टी द्वारा 40% महिलाओं को टिकट देना अत्यंत प्रशंसनीय ही नही अपितु महिलाओं को यथा योग्य सम्मान का परिचायक भी है । यह बात और है कि इसके पीछे भी राजनीतिक लाभ प्राप्त करने की मंशा ही है । उनका उत्साह ही विपक्ष की भूमिका में आना,ढाई लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के प्रांत की 24 करोड़ की आबादी में पार्टी को बीमार व मृतप्राय अवस्था से उबारने का संकेत है किंतु चुनावी नतीजे उन्हें निराश ही करेंगे , इसकी युक्तियुक्त संभावना थी और ऐसा हुआ भी। उनकी पार्टी के दयनीय प्रदर्शन व पार्टी को प्राप्त मत प्रतिशत के आँकलन से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस निरंतर आधारहीन होती जा रही है किन्तु ये कहा जा सकता है कि वे “महिला सम्बन्धी एजेंडा को सेट करने ” में सफल हुई हैं।
चुनाव प्रचार में पार्टियों ने जो वादे किये हैं वे यथार्थ से कोसों दूर हैं । उनका धरातल पर अमल में लाना व अनुसरण करना असंभव सा प्रतीत होता है । चुनाव में निरंतर नैतिकता के पतन के नित नये आयाम स्थापित हो रहे हैं । पाला बदला-बदली की तो पराकाष्ठा हो चुकी है । सांप-नाग व नेवाला के पुरातन खेल का नवीनीकरण हो चुका है । एक दूसरे पर लूँगीधारी, तिलकधारी,टोपीधारी का संबोधन बेबाक टिप्पणी समझा जाने लगा है। लाल रंग व पवित्र भगुआ (बसन्ती) रंग की व्याख्या बसंत ऋतु में ही परिवर्तित कर दी गई । हमारी सीधी साधी ग्रामीण जनता चतुर नेताओं के उद्बोधन पर ढोल-नगाड़ों से ताली पीट-पीटकर स्वागत करती है जिसके एवज में उन्हें प्राप्ति “शून्य” ही होती है । जहाँ तक नैतिकता का प्रश्न है वह नैतिकता अब शेष नही , जब विजयी उम्मीदवार द्वारा स्वागत मंच से नीचे उतर कर पराजित हुए उम्मीदवार को अश्रुपूरित नेत्रों से गले लगा लिया जाता था । इनकी इस अनैतिकता का कारण भी कमोबेस स्पष्ट है कि हम ही हैं —
“हमारी बेरुखी की देन है बाजार की जीनत,
अगर हममें वफ़ा होती तो यह कोठा नहीं होता ।”
इस अवधि में “ओमी अंकल रनिंग फास्ट “अर्थात ओमिक्रोन वायरस अपनी तीव्र गति में अनवरत रहा । चुनाव आयोग की वैवेकीय शक्ति का ही ये परिणाम है कि विभिन्न दलों को मंत्र-जाप-हवन ,जंतर-मंतर-मंथन,गाँव-गाँव, घर-घर,द्वारे-द्वारे, डगर-डगर,पाँव-पाँव जाने को विवश होना पड़ा । संभवतः माननीय नेताओं को उनकी प्रिय जनता की दुर्दशा के आँकलन करने का अवसर भी प्राप्त हुआ होगा , यह बात और है कि वे इस दुर्दशा को पूर्व से जानते हुए भी इसे नजरअंदाज करते हैं,क्योंकि वे इसे “अपना विषय” समझते ही नहीं है । वे तो एक दूसरे की केमिस्ट्री,मैथ,डी एन ए के विशेषज्ञ हैं । वंचितों की दुर्दशा का ज्ञान प्राप्त करने की उन्हें कोई जिज्ञासा ही नहीं है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश माननीयों हेतु विकास की बात करने की अपेक्षा दूसरों पर विष वमन करना सरल व महत्वपूर्ण कार्य हो गया है। मशविरा है कि
“दूसरों पर अगर तब्सिरा किया कीजिये,
तो आईना सामने रख लिया कीजिये । “
हमारा समाज राजनीति के इस मोहयुक्त मायाजाल से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हो रहा है । विभिन्न प्रकार के आयोजन भाईचारे को दूषित करने वाले यंत्र बन गए हैं । दुष्परिणामतः नवयुवकों में मानसिक दुर्भावना का प्रसार हो रहा है- “सुल्ली डील” व “बुल्ली बाई एप” द्वारा औरतें बेचकर किशोरों ने विषधारी होने का प्रमाण दिया है जो नितान्त दुर्भाग्यपूर्ण एवम दुःखद है ।
निःसंदेह ही हमने खूब उन्नति की है , कई असंभव कार्यों में सरकार ने सुखद वातावरण में उल्लेखनीय सफलता अर्जित की है किंतु स्वास्थ्य सुविधा में हमारी विश्व रैंकिंग 145 है । स्वास्थ्य सेवाओं, शासकीय शिक्षण संस्थाओं की बदहाली चिंताजनक है । ग्रामीण इलाकों की स्थिति कदाचित संतोषप्रद नहीं है,अपितु दयनीय है । निजी चिकित्सा तंत्र का पूर्णतः व्यवसायीकरण हो गया है ।
1952-2022 लोकतांत्रिक मताधिकार प्राप्ति के 70 वर्ष उपरान्त भी मतदाता की मतदान के प्रति उदासीनता भी गम्भीर चिन्ता का विषय है । अब पुनः स्मरण कर अनुसरण करना आवश्यक है कि शिक्षा,वाक-स्वतंत्रता,स्वास्थ्य,नियोजन ( रोजगार ) ,आवास आदि नागरिकों के “जीवन का आधार” है यह संवैधानिक “मौलिक अधिकार” तो है ही साथ ही इसे उपलब्ध कराना “राज्य का दायित्व” एवं “नैतिक कर्तव्य” भी है, यही कुशल प्रबंधन भी है । प्रथम चरण में अब वंचित जनों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना सर्वोपरी लक्ष्य होना चाहिये । सु-शासन की विशेषता भी यही है । यह भी विचारणीय है कि जब “समान दण्ड संहिता, समान व्यवहार संहिता” हो सकती है तो “समान नागरिक संहिता” क्यों नहीं हो सकती ? भारत के संविधान के अध्याय चार के अनुच्छेद 44 में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण नीति निदेशक तत्व है एवम वर्तमान परिवेष में इसकी महती एवम नितान्त आवश्यकता भी है ।
पं.नरेश शर्मा राज्य पुलिस सेवा , उप पुलिस अधीक्षक ( से.नि.)जबलपुर ( म.प्र. )