भारत मे धर्म जीवन का एक अभिन्न अंग होता है।विश्व के अन्य हिस्सों में भी कहीं धार्मिक कट्टरता है तो कहीं कहीं तथाकथित नास्तिकता भी।लोग सामान्यतः उस व्यक्ति को नास्तिक कह देते है जो ईश के प्रति आस्था नहीं रखता। पूजा पाठ आदि क्रियाएं नहीं करता।
सामान्यतः धर्म के अर्थ को पूजा ,पाठ, व्रत उपवास, अनुष्ठान आदि से ही लेते हैं। पर मेरे अनुसार ये सब क्रियाएं है। इन सब क्रियाओ से मन को निर्मल और दृढ़ बनाया जा सकता है। पर निर्मल मन के साथ जो स्वभाव बनता है और उस स्वभाव से जो भाव पैदा होता है। वही धर्म है। जैसे जल का धर्म शीतलता प्रदान करना, अग्नि का धर्म ऊर्जा और प्रकाश प्रदान करना वैसे ही इंसान का धर्म दुनिया मे प्रकृति प्रदत्त हर वस्तु और जीव के प्रति समन्वय का भाव रखना, किसी को रंच मात्र भी नुकसान न पहुँचाना, सबके प्रति दया और सहयोग का भाव रखना, स्वयं खुश रहना और अपने घर परिवार और दुनिया मे खुशियां बांटना होता है। या होना चाहिये।
पूजा पाठ की क्रिया छूट जाए तो कोई बात नहीं पर जरूरत मंद की मदद अवश्य करनी चाहिये।
मेरे अनुसार धर्म वास्तव में एक ही है -मानवीयता ।
मानव धर्म को जिसने अंगीकार किया वही सबसे बड़ा धर्मात्मा है।
धर्म का पांडित्य से, तप से त्याग से दान से कोई लेना देना नहीं। यदि आपने पांडित्य पा लिया है और साथ मे उसका गुरुर भी समा गया आपमें तो वो पांडित्य या ज्ञान तुच्छ है। यदि आपने घोर तप किया और भस्मासुर जैसा कोई वरदान प्राप्त कर लिया और लोगों को भस्म करने लगे तो वो तप पाप का कारण, यदि आपने बहुत बड़ा त्याग करने के लिये अपना ढेर सारा धन दान में दे दिया और उस धन को कमाने में आपने अनैतिक कार्य किया है तो ऐसा त्याग भी धर्म नहीं।
एक गरीब जिसके पास एक ही निवाला भोजन है और वो एक चिड़िया को भूखा देख अपना निवाला उसे डाल कर खुश हो जाए ये उसका भाव ही महान धर्म है।
धर्म अनंत है और अति सूक्ष्म भी। संक्षेप में इतना ही कहूंगी कि धर्म आपके अंतर का स्वभाव है । इसी को शास्वत सत्य जानिये।
अर्चना जैन,मंडला
Bahoot sahi kaha hai aapne bhabhi g